इस दिन है घी-त्यार, जानिए क्यों ख़ास है उत्तराखण्ड का यह त्यौहार -


उत्तराखण्ड के कृषि, पशुधन और पर्यावरण पर आधारित पर्व घी संक्रांति हर वर्ष अगस्त माह के मध्य पूरे पर्वतीय अंचल में धूमधाम से मनाया जाता है। यहाँ के कुमायूं अंचल में इस पर्व को 'घी-त्यार' और गढ़वाल अंचल में 'घी-संक्रांद' के नाम से जानते हैं। घी संक्रांति हिंदी माह भाद्रपद के प्रथम दिवस यानि 1 गते को मनाया जाता है। इस संक्रांति को पूरे भारत में 'सिंह संक्रांति' के नाम से जाता है। आज से सूर्य देव कर्क राशि से सिंह राशि में प्रवेश करते हैं। संक्रांति के दिन दान और पुण्य करने की भी परंपरा है। सिंह संक्रांति के दिन भगवान विष्णु, सूर्यदेव और भगवान नरसिंह की पूजा की जाती है। 

उत्तराखण्ड में 'घी-संक्रांति' के दिन अनिवार्य रूप से घी का सेवन करने की परम्परा है। मान्यता है कि इस दिन घी का सेवन न करने वाले लोग अगली योनि में घोंघे का शरीर धारण करते हैं। 

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  • घुटनों, माथे पर घी मलने की अनोखी परम्परा :

घी को ग्रहण करने के अलावा घी-त्यार पर लोग अपने घुटने, माथे, कोहनियों और ठोढ़ी पर चुपड़ने (मलने) की परम्परा है। नवजात शिशुओं को भी अनिवार्य रूप से घी-त्यार पर घी थोड़ा से चटाया जाता है। उसके पैर के तलुओं, घुटनों, कोहनी, माथे पर घी लगाकर ओजस्वी होने की कामना की जाती हैं।

 

  • घी-त्यार के बाद ही अखरोट खाने लायक होते हैं -

उत्तराखण्ड के दिव्य और भव्य पहाड़ों के बीच बसे गांवों में इस समय बड़ी चहल-पहल रहती है। हरेभरे धान के खेतों में बालियां आनी प्रारम्भ हो जाती हैं। संतरे माल्टा, नींबू के फल आकार लेने लगे होते हैं। अखरोट परिपक्व होने लगता है। कहते हैं घी-त्यार के दिन अखरोट में घी का संचार होता है, इसीलिये घी-त्यार के बाद ही अखरोट खाये जाते हैं। 


  • घी-त्यार पर कुमाऊँ में ओलगा देने की परम्परा - 

कुमाऊँ में घी-त्यार को ओलगिया के रूप में भी जाना जाता है। इस दिन कुल पुरोहित अपने यजमानों को फल इत्यादि और शिल्पज्ञ लोगों को अपनी कारीगरी भेंट करते हैं। जिसे ओग/ओलग देना कहते हैं। लेकिन धीरे-धीरे यह प्रथा समाप्ति के कगार पर है। कहीं-कहीं आज भी इस प्रथा का निर्वहन हो रहा है। शिल्पकार बंधु लोगों को लोहे के बने उपकरण जैसे दराती, कुदाल, चिमटा, जांती आदि भेंट करते हैं। इसके बदले उन्हें अनाज और रूपये प्रदान किये जाते हैं।
ओलगा/ओग देने की यह परम्परा चंद राजवंश के समय से चली आ रही है। चंद राजाओं के समय में शिल्पकार राजा को अपनी कारीगरी भेंट करते थे और उसे राजा द्वारा पुरस्कृत किया जाता था। अन्य लोग भी दरबार में राजा तक फल, दूध, दही, घी, साग-सब्जियां पहुंचाते थे। यह ओग /ओलगा देने की प्रथा कहलाती थी। 


  • घी-त्यार पर चांचरी लगाने की भी है परम्परा -

कहते हैं घी के सेवन करने के बाद  शरीर को आराम देने के बजाय पर्याप्त रूप से गतिमान बनाये रखना चाहिए।  यही वैज्ञानिक महत्व की जानकारी हमारे पूर्वजों को पहले से ही थी। त्यौहार मनाने  के बाद अपने मनोरंजन और अपने शरीर को ऊर्जावान बनाने के लिए लोग चांचरी का आयोजन करते हैं। यह परम्परा उत्तराखण्ड के अधिकांश गांवों में कम होती जा रही है। 

 

  • घी संक्रांति 2024: इस साल घी संक्रांति का त्योहार शुक्रवार, दिनांक 16 अगस्त 2024 को मनाया जायेगा। 

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उत्तराखण्ड के त्यौहार घी-संक्रांति के बारे में विस्तृत में पढ़ने के लिए इस लिंक पर जाएँ - 

Ghee Tyar | घी त्यार-स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता का लोकपर्व ।

 

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