हरेला संक्रांति : पहाड़ों में हरियाली, खुशहाली और कृषिक्रांति का पर्व | Harela Sankranti Festival.

harela-festival
हरेला मात्र एक परम्परागत संक्रांति या धार्मिक पर्व नहीं है,यह हमारी कृषक क्रांति और समूचे क्षेत्र में हरियाली लाने का भी परम्परागत त्योहार है।

 

इस बार उत्तराखंड में हरेला का पर्व 16 जुलाई को मनाया जाएगा। इसके साथ ही हरेला बोने का सिलसिला भी शुरु हो चुका है। दस दिन में हरेला काटने वाले परिवार ने 7 जुलाई और नौ दिन वालों ने 8 जुलाई को हरेला की बुवाई कर दी है । उत्तराखंड के पंचांगों के अनुसार इस बार 16 जुलाई को हरेला की संक्रांत मनाई जाएगी। (Harela Festival of Uttarakhand)

दरअसल, हरेला मात्र एक परम्परागत संक्रांति या धार्मिक पर्व नहीं है,यह हमारी कृषक क्रांति और समूचे क्षेत्र में हरियाली लाने का भी परम्परागत त्योहार है। यह पर्व प्रकृति प्रेम और मातृवत्सला धरती को शस्य श्यामला बनाने का वार्षिक अनुष्ठान भी है। यह पहाड़ संस्कृति में रची बसी एक मां का अपने पुत्र को कर्मठ बनाकर उसे जीवन पथ पर आशीर्वाद और शुभकामनाएं देने का बहुत भावुक पर्व भी है। इस दिन माताएं और परिवार की बुजुर्ग महिलाएं अपने पुत्र-पौत्रों को संघर्षपूर्ण जीवन-रण में ‘विजयी भव’ होने का आशीर्वाद देते हुए स्थानीय भाषा में कहती हैं-


“जी रये, जागि रये, तिष्टिये, पनपिये,
दुब जस हरी जड़ हो, ब्यर जस फइये,।
हिमाल में ह्यूं छन तक, 
गंग ज्यू में पांणि छन तक,
यो दिन और यो मास भेटनैं रये, 
अगासाक चार उकाव, 
धरती चार चकाव है जये,
स्याव कस बुद्धि हो, स्यू जस पराण हो।”
 

अर्थात् “हरेला तुम्हारे लिए शुभ होवे, तुम जीवन पथ पर विजयी बनो, जागृत बने रहो, समृद्ध बनो, तरक्की करो, दूब घास की तरह तुम्हारी जड़ सदा हरी रहे, बेर के पेड़ की तरह तुम्हारा परिवार फूले और फले। जब तक कि हिमालय में बर्फ है, गंगा में पानी है, तब तक ये शुभ दिन, मास तुम्हारे जीवन में आते रहें। आकाश की तरह ऊंचे हो जाओ, धरती की तरह चौड़े बन जाओ, सियार की सी तुम्हारी बुद्धि होवे, शेर की तरह तुम में प्राणशक्ति हो”

 - ये ही वे आशीर्वचन और दुआएं हैं जो हरेले के अवसर पर घर के बड़े बूढ़े व बजुर्ग महिलाएं बच्चों, युवाओं और बेटियों के सिर में हरेले की पीली पत्तियों को रखते हुए देती हैं।


  • हरेला: मातृवत्सल सामाजिक पर्व-

हरेला उत्तराखंड का एक प्रमुख सामाजिक और सांस्कृतिक त्योहार है। घर के मन्दिरों और गृह द्वारों में सबसे पहले हरेला चढ़ाया जाता है और फिर घर के बड़े बूढ़े बुजुर्ग लोग बच्चों, युवाओं, पुत्र, पुत्रियों, नाती, पोतों के पांवों से छुआते हुए ऊपर की ओर शरीर पर स्पर्श कराते हुए हरेले की पत्तियों को शिर में चढ़ाते हैं तथा “जी रये, जागि रये, तिष्टिये, पनपिये ” बोलते हुए आशीर्वाद देते हैं। दूर प्रवास में रहने वाले परिजनों को भी वर्ष भर हरेले की इन पीली पत्तियों का इन्तजार रहता है कि कब चिट्ठी आए और कब वे हरेले की इन पत्तियों के रूप में अपने बुजुर्गों का शुभ आशीर्वाद शिरोधार्य कर सकें।(Harela Festival 2022)

दूर प्रवास में रहने वाले परिजनों को भी वर्ष भर हरेले की इन पीली पत्तियों का इन्तजार रहता है कि कब चिट्ठी आए और कब वे हरेले की इन पत्तियों के रूप में अपने बुजुर्गों का शुभ आशीर्वाद शिरोधार्य कर सकें।


  • परंपरागत कृषिक्रांति से जुड़ा पर्व-

पिछले अनेक वर्षों से उत्तराखंड राज्य  हरेला पर्व के अवसर पर व्यापक स्तर पर पौधारोपण और वृक्षारोपण की योजना भी बनाता आया है। हरेला उत्तराखंड का एक प्रमुख सांस्कृतिक त्योहार होने के साथ साथ यहां की परंपरागत कृषि से जुड़ा कृषि वैज्ञानिक पर्व भी है। उत्तम खेती, हरियाली,धनधान्य, सुख -संपन्नता आदि से इस त्यौहार का घनिष्ठ सम्बंध रहा है। माना जाता है कि जिस घर में हरेले के पौधे जितने बड़े होते हैं,उसके खेतों में उस वर्ष उतनी ही अच्छी फसल होती है। हरेला उगाने के लिए पांच अथवा सात अनाज गेहूं, जौ, मक्का, सरसों, गौहत, कौंड़ी, धान और भट्ट आदि के बीज घर के भीतर छोटी टोकरियों अथवा लकड़ी के बक्सों में बोये जाते हैं, और प्रतिदिन नियमानुसार सुबह-शाम पूजा के बाद पानी दिया जाता है। धूप की रोशनी न मिलने के कारण ये अनाज के पौधे पीले हो जाते हैं। हरेला बोने के बाद 9वें या 10वें दिन संक्रान्ति को काटा जाता है। (Harela Tyohar)


  • हरेला ऋतुविज्ञान का पारम्परिक पर्व-

उत्तराखण्ड कृषि प्रधान क्षेत्र होने के कारण प्राचीन काल से ही ऋतुओं का स्वागत हरेले के पर्व के द्वारा किए जाने की परम्परा रही थी। हरेले का पर्व नई ऋतु के शुरु होने की सूचना का पर्व भी है, उत्तराखण्ड में मुख्यतः तीन ऋतुएं होती हैं- शीत, ग्रीष्म और वर्षा। यहां मौसम का मिजाज प्रायः बदलता रहता है। कुमाऊं अंचल में इसी मौसम के शुभाशुभ की संभावनाओं के पू्र्वानुमान को जानने समझने के लिए हरेला वर्ष में तीन बार बोया और काटा जाता है। ग्रीष्म ऋतु की शुरुआत चैत्र मास से होती है, सो पहली बार चैत्र माह के प्रथम दिन हरेला बोया जाता है और नवमी के दिन काटा जाता है। वर्षा ऋतु की शुरुआत श्रावण (सावन) माह से होती है, इसलिये दूसरी बार श्रावण माह लगने से नौ दिन पहले आषाढ़ में बोया जाता है और दस दिन बाद श्रावण माह की एक गते को हरेला काटा जाता है। शीत ऋतु की शुरुआत आश्विन मास से होती है, सो तीसरी बार आश्विन नवरात्र के पहले दिन हरेला बोया जाता है,और दशहरे के दिन काटा जाता है।


  • सूर्यदेव के दक्षिणायन प्रयाण का पर्व-

भारतीय काल गणना और मानसून विज्ञान की दृष्टि से भी वर्षाऋतु के श्रावण मास की संक्रांति को बोये जाने वाले हरेले का विशेष महत्त्व है। इसी दिन सूर्यदेव दक्षिणायन तथा कर्क से मकर रेखा में प्रवेश करते हैं। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार श्रावण का महीना शिव की पूजा अर्चना का भी पवित्र महीना है। हरेला, हरियाली अथवा हरकाली आदि ऐसे शब्द हैं जो बताते हैं कि हरेला का सम्बंध खेतीबाड़ी से जुड़ी हरियाली से है जिसे शिव पार्वती की अनुकंपा से ही प्राप्त किया जा सकता है। पौराणिक जनश्रुतियों के अनुसार शिव पत्नी सती को अपना कृष्ण वर्ण नहीं भाता था, इसलिए वह इसी दिन अनाज के हरेले पौधों की आकृति को धारण करके गौरा रूप में अवतरित हुई थीं। इस पर्व को शिव विवाह से भी जोड़ा जाता है। इस लिए हरेले के दिन शिव पार्वती की सपरिवार पूजा की जाती है और उन्हें हरेला चढ़ाया जाता है।


  • हरित क्रान्ति का वार्षिक अभियान-

‘हरेला’ महोत्सव मात्र एक संक्राति नहीं बल्कि कृषि तथा वानिकी को प्रोत्साहित करने वाली हरित क्रान्ति का निरन्तर रूप से चलने वाला वार्षिक अभियान भी है,जिस पर हमारी जीवनचर्या टिकी हुई है तथा उत्तराखंड राज्य की हरियाली व खुशहाली भी। इसलिए हरित क्रान्ति के इस वार्षिक अभियान पर विराम नहीं लगना चाहिए। हरेले का मातृ–प्रसाद हमें साल में एक बार संक्राति के दिन मिलता है परन्तु धरती माता की हरियाली पूरे साल भर चाहिए। यही कारण है कि उत्तराखंड कृषिप्रधान प्रदेश होने के कारण हमारे पूर्वजों ने साल में तीन बार हरेला बोने और काटने की परंपरा का सूत्रपात किया और सबसे पहले धान की खेती के आविष्कार का श्रेय भी इन्हीं उत्तराखंड के आर्य किसानों को मिला, जिसकी शुरुआत हरेले के आगमन से होती है।


  • पहाड़ों में हरियाली लाने का पर्व-

हरेला मात्र एक धार्मिक और सांस्कृतिक त्योहार ही नहीं है बल्कि उत्तराखंड के आर्य किसानों का पहाड़ों की पथरीली भूमि में हरित क्रान्ति लाने की नव ऊर्जा भरने का लोकपर्व भी है। किसी जमाने में हरेला पर्व से ही आगामी साल भर के कृषि कार्यों का शुभारम्भ धरती पर हुआ करता था। सावन–भादो के पूरे दो महीने हमें प्रकृति माता ने इसलिए दिए हैं ताकि बंजर भूमि को भी उपजाऊ बना सकें,उसे शाक-सब्जी उगा कर हरा भरा रख सकें। धान की रोपाई और गोड़ाई के द्वारा इन बरसात के महीनों का सदुपयोग किया सकता है। समस्त उत्तराखंड आज जलसंकट व पलायन की विभीषिका को झेल रहा है। उसका कारण यह है कि पहाड़ में परंपरागत खाल,तालाब आदि जल-भंडारण के स्रोत सूख गए हैं उन्हें भी इन्हीं बरसात के मौसम में पुनर्जीवित किया जा सकता है। इस दृष्टि से हरेला पर्व जल संकट से उबरने का जलवैज्ञानिक पर्व भी है। इन सावन-भादो के दो महीने हमारे आस पास सूखे खाल तालाबों को भरने और नए जलाशयों के निर्माण का पर्व भी है।


  • जल संरक्षण के खास दो महीने-

 हरेला से शुरू होने वाले सावन और भादो के ये दो महीने प्रकृति प्रदत्त सौगात के खास महीने भी हैं। जल संरक्षण और पहाड़ में लुप्त होते या सूख चुके परम्परागत जलस्रोतों, नौलों,धारों तथा गाड़-गधेरों को बचाने तथा उन्हें पुनर्जीवित करने की मुहिम में जो भी संस्थाएं कार्यरत हैं,उन्हें बरसात के इन्हीं दो महीनों में जमीनी धरातल पर कार्य करने की जरूरत है। बरसात के इन दो महीनों में ही यह पता चल सकता है कि आकाश से बरसी जलधारा की पहाड़ों में बहने की दिशा क्या है? और उसी के अनुसार जलवैज्ञानिकों की देखरेख में नए जल सरोवरों और खाल तालाबों के निर्माण की योजनाएं बनाई जा सकती हैं। उत्तराखंड सरकार द्वारा लोक संस्कृति के विरासत में मीले इस कृषिवैज्ञानिक पर्व हरेले का संज्ञान लेते हुए राज्य की खुशहाली से जुड़ी कृषि और वानिकी योजनाओं को सावन भादो के महीनों में प्रोत्साहित किया जाए तो उसके दूरगामी अच्छे परिणाम आ सकते हैं।क्योंकि बरसात का यह मौसम ही राज्य में कृषि और वानिकी को समृद्ध बनाने का अनुकूल तथा सुनहरा मौका होता है। वर्षाऋतु में मनाए जाने वाले इस त्यौहार के अवसर पर सरकार बंजर खेती को उपजाऊ बनाने या उन खेतों में कृषिवैज्ञानिकों की मदद से औषधीय वृक्षों और जड़ी-बूटियों के रोपण की योजनाओं को प्रोत्साहित कर सकती है। जल वैज्ञानिकों के परामर्श पर वाटर हार्वेस्टिंग की वैज्ञानिक तकनीकों से ग्रामीण जनों को अवगत कराते हुए राज्य में जलसंकट की समस्या का समाधान निकाल सकती है। इस प्रकार जल संरक्षण और वृक्षारोपण सम्बन्धी इन योजनाओं के कार्यान्वयन द्वारा हरेला महोत्सव को गौरवशाली मौसमवैज्ञानिक और कृषि वैज्ञानिक परंपराओं के साथ जोड़ा जा सकता है। साथ ही इन्हीं योजनाओं के माध्यम से उत्तराखंड राज्य में हरियाली और खुशहाली की क्रांति लाई जा सकती है,लोगो को रोजगार के अवसर मुहय्या कराए जा सकते हैं और काफी हद तक पहाड़ से पलायन को भी रोका जा सकता है।


  • आज भी क्यों प्रासंगिक है हरेला?

आज हम हरेले के पावन अवसर पर उत्तराखंड की इस संक्रांति को हरित क्रांति के विचार के रूप में पुनर्जीवित करना इसलिए भी जरूरी समझते हैं कि उत्तराखंड राज्का गठन जिन खुशहाली के सपनों को पूरा करने के लिए किया गया था वे सपने अब तक अधूरे ही रहे हैं। हिमालय क्षेत्र के तीन प्रमुख राज्यों – जम्मू कश्मीर, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड में से उत्तराखंड राज्य आज कृषि और सिंचाई के संसाधनों की दृष्टि से सबसे ज्यादा पिछड़ा हुआ और विपदा ग्रस्त राज्य है। उत्तराखंड राज्य बनने के बाद यहां पलायन सबसे ज्यादा हुआ है। उसका एक मुख्य कारण है राज्य सरकारों द्वारा जल, जमीन से जुड़े कृषि के संसाधनों के प्रति घोर उपेक्षा भाव रखना। यहां जिस पार्टी की भी सरकार बनी है कृषिपरक रोजगार और उसके लिए बहुत जरूरी सिंचाई के साधनों की समृद्धि के लिए उसने कुछ नहीं किया। उत्तराखंड के जाने माने लोक कवि हीरासिंह राणा ने पहाड़ के पलायन की इस पीड़ा को बयां करते हुए कहा है -


“कैकणी सुणानू पहाड़ै डाड़, 
काट्यी ग्यीं जंगल सुकिगे गाड़ ।
सब्ब ज्वान नान् यां बटि न्है गई टाड़।।
क्वे सुणों पहाड़कि दुःखों कहाणी,
जै शिव शंकर जै हो भवानी॥”
 

इतने घनघोर संकट के बावजूद भी जितनी भी हरियाली आज यहां उत्तराखंड में बची है वह इस देव भूमि में विराजमान देवताओं का आशीर्वाद, प्रकृति परमेश्वरी का कृपा प्रसाद और हमारी तपस्यारत नारी शक्ति के कठोर परिश्रम का फल है। कर्मयोगी पर्वतीय हलवाहों और धैर्यशाली मेहनतकश बैलों ने यहां खेती को आबाद कर रखा है। मां, बेटी, बहन तथा पत्नी के रूप में नारीशक्ति की इस राज्य को खुशहाल बनाने में अहम भूमिका रही है। वह नारी शक्ति ही आज भी उत्तराखंड को हरित क्रांति से जोड़ने के लिए संघर्षशील है। पलायन के भारी संकट के बाद भी हम जहां इधर उधर एक दूसरे पर आरोप मढ़ने में लगे हैं वहां पहाड़ की नारीशक्ति इस सावन के महीने में बंजर खेतों को हरा भरा करने के लिए अपने दुख सुख की परवाह किए बिना जी जान से जुटी है। उत्तराखंड के जाने माने लोक कवि हीरासिंह राणा के शब्दों के माध्यम से हम उत्तराखंड की मातृ भूमि को हरेला लगाने वाली इस नारीशक्ति को नमन करते हैं -


“भ्योव पहाड़ों का गोद गहानैं‚ 
खेतों का बीचम बिणै बजानै। 
 नांगड़ि खुट्यां मा बुड़िया कानी‚
 च्यापिंछ पीड़ै कैं क्ये नि चितानी।
 पहाड़ा सैणियोंक तप और त्याग‚
 आफि बणाय जैल आपोंण भाग।
 स्वोचौ पहाड़क सैणियोंक ल्हिजी‚
 जे आजि गों बटी गों में नि पूजी ॥
 

आइए ! हरेले के इस पावन अवसर पर उत्तराखंड में हरित क्रांति के संदेश को जन जन तक पहुंचाएं और देवभूमि उत्तराखंड को खुशहाल और उपजाऊ बनाने में अपना योगदान दें। हरेले के इस पावन पर्व पर सभी देशवासियों और उत्तराखण्डवासियों को हार्दिक शुभकामनाएँ!!

“जी रया, जागि रया, तिष्टिया, पनपिया ” !! 

 

 लेख -  © डा.मोहन चन्द तिवारी 

  • Harela Festival 2022 Date :  Saturday, 16 July 2022